ख़ुदेजा खान की कविताएं

सुप्रसिद्ध कवि राजेश जोशी ने लिखा है कि ख़ुदेजा की कविता में उनकी जबान का एक अलग तेवर है, अपने सुख-दुःख हैं, हमारा अपना चेहरा है और उसमें हमें अपनी आवाज़ सुनाई देती है। वह बोलचाल की जबान को बदलने का फन जानती हैं।

 

 

उत्तर की तलाश में

हर क़दम पर
एक उत्तर खड़ा मिला
आधा-अधूरा, मतिभ्रम से ग्रसित
धोखे में लिपटा
ओढ़े हुए सच की नुमाइश करता

लुभाता रहा आकर्षक चकाचौंध से

बहतों ने
प्रश्न को ही खड़ा कर दिया कटघरे में

बहुतों ने अनुसरण किया गलत उत्तर का

बहुतों ने मान लिया
ग़लत को ही सही

प्रश्न बेचारा भटकता रहा
सही उत्तर की तलाश में।

कौंध

लिखने की चेष्टा में
लिखा गया बहुत कुछ अनावश्यक
वही छूट गया लिखने से
जिसकी कौंध ने किया था ध्यानाकर्षित

पूर्वानुमानित कुछ भी नहीं
हर बार नया आग्रह
नए विचार का प्रस्थान बिंदु

संवेदना उसे देखकर
कभी ठिठक गई कभी बिफर गई

विचार बनके गिरी बिजलियां
अक्सर झकझरोती हैं
कौंध बनके।

परदा

कांच की दीवार पर टंगा परदा
छुपा लेता है
धूप, हरियाली और दृश्यों को
कमरे को बदल देता है
एकांतवास में

कभी अवांछित को ढंक देता है
आवश्यकतानुरुप

कईयों ने रिश्तों में भी
बरती परदेदारी

जिनकी आंख पर पड़ा था परदा
उन्हें फ़र्क़ नहीं दिखा सच और झूठ में

मन पर पड़ा परदा
कभी जो हट गया तो
स्मृतियां झांक कर मारने लगीं कुलांचे

बचपन दौड़ने लगा
खेल के मैदान में
फिसलपट्टी बन गई रोलर कोस्टर
पेड़ों से भरा अहाता हो गया
हैरी पाॅटर की दुनिया
जहां बारहों महीने मौसम का जादू
फीका नहीं पड़ता

हवाई जहाज,तितली और पतंग
सब हवाबाज़ खिलौने
कौतुहल से बांधे रखते

उम्र के हिसाब से
वक़्त- ज़रुरत अतीत पर
डला रहता है परदा

पर कभी-कभी इसे सरकाकर
देख लेना भी लगता है सुखद।

जड़

तुम्हारे आकार और विस्तार का
स्पंदन जीवित रखता है मुझे

कई दिन हुए
भारहीन सा लगता है
जैसे मेरी आत्मा से
शरीर को अलग कर दिया हो

मेरे हृदय में कंपन नहीं
वाहनियों में संचार नहीं
निर्जीव काया मात्र

उसे ही काट दिया निर्ममता से
जिस पेड़ की जड़ थी मैं।

टीकाकरण

रूढ़- रुग्ण जड़ें
जगह बनातीं
असंवेदना की भूमि में
जातियों का संक्रमण फैलाने

दूषित मानसिकता से
महामारी में बदल देना चाहतीं
समूची प्रणाली को

कितनी ही महामारियों से
अपने अस्तित्व को
बचाने वाला मनुष्य
सदियों पुरानी
संक्रमित व्यवस्था का
नहीं कर पाया आज तक
कोई टीकाकरण।

 

मनुष्यता की चादर

शिशु रूप में पैदा हुआ
निश्छल और अबोध
सफेद चादर की तरह

जीवन यात्रा में
मैली होती गई चादर

संघर्ष की मिट्टी में सनी
नफ़रत के दाग़ लगे
ग्लानि के धब्बों से मलिन हुई
किसी ने रंजिश में रक्त रंजित किया
कोई धोखे का रंग डालकर कर गया बदरंग
कोई दुखों की चादर ओढ़े
घूमता रहा जीवन भर
कट्टरपंथियों ने धर्म की चादर को
बना लिया ओढ़ना-बिछौना

अंततः मैली होने से
बच न सकी मनुष्यता की चादर।

 

ऊग जाओ स्वयं

क्या हमेशा बीज से ही
होगे अंकुरित

क्या जड़ें ही सदैव
पोषित करेंगी

क्या फूल और पत्तियां ही
निखारेंगी सौंदर्य

क्या केवल फल ही करेगा
नव सृजन

किसी पौधे की कलम बनकर
ऊग जाओ कहीं

निर्मित कर लो अपनी
जड़ें ,फूल, पत्ती
फिर फल भी ऊगेंगे इसी से।

 

गलनांक

कठिन है
पिघलने के
तापमान मूलक बिंदु तक पहुंचना

उच्च गलनांक
अप्रभावित रहता है
स्नेह की मद्धम आंच से

कठोर से कठोर
धात्विक स्वभाव को
देखा है प्रेम जनित ऊष्मा से पिघलते- गलते

प्रेम की तीव्रता ने
कर दिया तिरोहित
दंभी गलनांक को

धातु कोई भी हो
पिघलती ज़रूर है।

श्रमशील

कोयले की तरह धधकता हूं
अग्नि में बदलकर
बन जाता हूं अखंड ऊर्जा का स्रोत
जब इस्तेमाल होता हूं कारखाने में

ईंधन बनकर जलते-जलते
अंत समय में
हो जाता हूं राख

पदार्थ वही
बस बदलता है गुणधर्म
जो बन जाते हीरे
हो जाते हैं मूल्यवान

मैं श्रमशील सस्ता होकर भी
बना रहता हूं उपयोगी।

विदा होकर भी

शाम को विदा कह कर
स्कूल के बच्चे की तरह
सूरज फिर आ धमकता है
अपनी हाजिरी देने

चांद अंतर्ध्यान होकर
रात को फिर अवतरित हो गया
हरसिंगार के फूल की तरह

एक गुलाब मुरझाया
दूसरा ऊग आया

किसी की मृत्यु हुई
किसी ने जन्म लिया

कहीं टपका
दुख का खारापन आंखों से
कहीं खिली
ख़ुशी की मुस्कान होठों पर

मौसम बदस्तूर
विदा लेकर भी
आते जाते रहे

जो हमेशा के लिए चले गए
मगर अलविदा नहीं कहा

उपस्थित रहे जीवितों की
अशेष स्मृतियों में।

शांति के लिए युद्ध

अशांति के जनक ने
युद्ध में धकेल दिया मानवता को
डाल दी हिंसा की चादर
चैन की नींद सो रहे लोगों पर

घायल मांओं की गोद में
नोनीहालों के करुण क्रंदन से
नहीं पिघला क्रूर शासक का हृदय

अपाहिज विवशता के
कटे हुए हाथों से
मदद की गुहार लगाते
असंख्य मनुज
देखते रहे जीवन को
मृत्यु में बदलते

साम्राज्यवाद की कुटिल करतूतों को
झेलते रहे अभिशप्त नागरिक

शांति के लिए युद्ध को
अनिवार्य कहने वाले
खड़े हैं
एक विरुद्धार्थी शब्द के समर्थन में।

 

कवयित्री ख़ुदेजा ख़ान, जन्म- 12 नवम्बर. हिंदी -उर्दू की कवयित्री, समीक्षक और संपादक के रूप में कार्य।
तीन कविता संग्रह। उर्दू में भी दो संग्रह प्रकाशित।साहित्यिक व सामाजिक संस्थाओं से सम्बद्ध। समकालीन चिंताओं पर लेखन हेतु प्रतिबद्ध।
जगदलपुर(छत्तीसगढ़) में निवासरत।
फोन-7389642591

 

आत्मकथ्य

आमतौर पर लेखन की शुरुआत पद्य से ही होती है। मुझे याद है जब पहली बार ग़ज़ल की आवाज़ मेरे कानों में पड़ी तब उसकी काव्यात्मकता ने ही अपने शब्दों से मुझे बांध लिया था। जिसका आलंबन लेकर मैं, शेरो- शायरी की दुनिया में दाख़िल हुई। ग़ज़लों के रुझान ने मुझसे ग़ज़लें, नज्में और कविताएं लिखवाईं।ग्रेजुएशन करते-करते मेरे वैवाहिक जीवन का शुभारंभ हो गया फिर बच्चे और घर गृहस्थी की व्यस्तताएं रहीं फिर भी लेखन से नाता जुड़ा रहा। साहित्यिक पत्र-पत्रिकाएं और पुस्तकों का अध्ययन निरंतर जारी रहा।

फिर सोचा साइंस से ग्रेजुएट होने के कारण हिंदी साहित्य का उतना ज्ञान नहीं है जितना होना चाहिए इसलिए हिंदी साहित्य में एम.ए. करने से लेखकीय दृष्टिकोण संपन्न होगा, पुरोधा लेखक -लेखिकाओं के बारे में जानकारी मिलेगी यह सोचकर शादी के सोलह साल बाद स्नातकोत्तर की परीक्षा उत्तीर्ण की साथ ही संस्कृत का भी फॉर्म भर दिया।

हिंदी में ग़ज़ल लिख ही रही थी इसलिए सबसे पहला संग्रह देवनागरी में ‘सपना सा लगे’ पहले-पहल प्रकाशन भोपाल मध्य प्रदेश से 2001 में प्रकाशित हुआ। ग़ज़ल में मेरा कोई उस्ताद नहीं था इसलिए नज़्मों की तरफ़ ध्यान गया जिसमें मात्राओं जैसी पाबंदी नहीं होती इसलिए नस्री (गद्य)नज़्मों में मैंने ख़ुद को अधिक सहज पाया और फिर यहीं से कविता लिखने का दौर शुरू हुआ। इसी सिलसिले में ‘संगत’ संग्रह( 2013) यह भी पहले- पहल प्रकाशन भोपाल मध्य प्रदेश से ही आया।

शुरू में पत्र-पत्रिकाओं में छपने के शौक़ में कभी लघु कथाएं लिखीं, कभी हाइकू तो कभी कहानी, साथ में समीक्षा का लिखना भी चल रहा था क्योंकि सप्रेम, साग्रह अनेक पुस्तकें डाक से आती रहती थीं।
समीक्षा लेखन अभी गंभीरता से जारी है लेकिन शेष विधाएं किनारे लग गईं। अपनी मूल विधा कविता को ही अपनाना मुझे श्रेयस्कर लगा।

कोरोना काल में एक पुस्तक ‘ज़िंदगी ज़िंदाबाद’ और दूसरी ‘महिला दिवस एक अभिव्यक्ति’ का सम्पादन सृजन बिम्ब प्रकाशन नागपुर महाराष्ट्र से करने का अवसर मिला। इसके बाद दो और संपादित पुस्तकें बोधि प्रकाशन से आईं ‘मां पर केंद्रित कविताएं’ एवं ‘पिता पर केंद्रित कविताओं’ का संग्रह।
वर्तमान में ‘सारांश साहित्य’ ई पत्रिका का संपादन और ‘वनप्रिया’ त्रैमासिक पत्रिका के सह संपादन में योगदान दे रही हूं।

घर- गृहस्थी के बीच ही अपनी साहित्यिक यात्रा के सोपान तय किये।तकनीक के प्रादुर्भाव से हम जैसों को बहुत लाभ मिला जब सोशल मीडिया फेसबुक ,व्हाट्सएप जैसे प्लेटफार्म से रचनाओं का आदान-प्रदान व प्रचार- प्रसार, सुगम- सुलभ हो गया तब लेखकीय समुदायों /साहित्यिक समूहों से जुड़ना कोई टेढ़ी खीर नहीं रह गई।ऐसे में सालों का लेखन कर्म लोगों के समक्ष आया।
नेशनल उर्दू काउंसिल न्यू दिल्ली के माध्यम से ‘आबगीना’उर्दू नज़्मों का संग्रह (2018) और डिजिटल प्रिंटिंग से सचित्र ‘फिक्र ओ फ़न’ (2021)का प्रकाशन संभव हो सका। इस तरह समस्त पारिवारिक जिम्मेदारियों का निर्वहन करते हुए साहित्य साधना अनवरत चलती रही।किसी भी क्षेत्र में आगे बढ़ने के लिए लगन, समर्पण, परिश्रम तीनों चीज़ों की ज़रूरत होती है, मैंने भी इनका साथ कभी नहीं छोड़ा।

हिंदी साहित्य जगत में छंदमुक्त कविता का प्रचलन निराला के बाद से उत्तरोत्तर प्रगति पर ही रहा है। प्रतिरोध के स्वर हों या मनोजगत की भावाभिव्यक्ति, आधुनिक कविता ने लेखक के समक्ष एक विराट वितान को खोला है इसकी झांकियां हम सोशल मीडिया और पुस्तक मेलों में भरपूर मात्रा में देख रहे हैं।सवाल प्रतिबद्धता का है। कौन, कितनी सत्यता के साथ साहित्य कर्म से जुड़ा है या केवल लोकप्रियता ही उनका लक्ष्य है यह दोनों बातें अपने अर्थ में बहुत मायने रखती हैं।
साहित्य में समाज को बदलने की ताकत अब दिखाई क्यों नहीं देती, क्या तकनीक ने इसकी प्रबलता को क्षीण किया है या एक साहित्यकार में उन गुणों का क्षय हुआ है जिनकी आवश्यकता आज पहले से अधिक दिखाई पड़ती है।

कविता लिखना जितना आसान लगता है ख़ासकर छंदमुक्त/अतुकांत कविता, दरअसल यह उतना सरल कार्य है नहीं।कविता में विषय, भाव, विचार, संवेदना का एक सुसंगत संप्रेषण उसे ग्राह्य बनाता है। बाधित संप्रेषण में कविता का भाव एवं मर्म दोनों खोकर रह जाते हैं।सहजता से कविता का पाठक तक पहुंचना, कविता की सफलता है।
मेरी कविताएं इस कसौटी पर कितनी खरी उतरती हैं यह पाठक ही बताएंगे।

ख़ुदेजा ख़ान
जगदलपुर/ छत्तीसगढ़

 

Categorized in: